तत्त्व और ऊर्जा के बाद पृथ्वी में अंतर निहित गुरु ही तीसरा आयाम है, जो वायु को गति दे कर प्राण का निर्माण करता है। तत्त्व और ऊर्जा की गति ही उस प्राण को निर्बल और पुष्ट करती है। आप का गुरु आप में ही निहित है , किसी भी प्राण का गुरु उस प्राण के बाहर हो ही नहीं सकता। स्व गुरुत्व की पूर्ण जागृति ही गरिमा की स्थापना है। दूसरों के गुरुत्व पर आलम्बित होने के स्थान पर अपने गुरुत्व को स्वम् जागृत करे। इसी दर्शन की नक्षत्रिय व्यख्या गुरु पूर्णिमा है।
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