Saturday 24 September 2016

गाँधी का  सिद्धान्त अहिंसक कदापि नहीं था ,आत्महिंसक था।

कृष्ण और चाणक्य ने  आत्महिंसा या क्षमा को कभी भी परिणाम नहीं माना।  प्रकृति का सहज सिद्धान्त कि : प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया आवश्यक है : ही उनके निर्णयों का आधार रहा। अर्थातक्रिया के गुणों से युक्त प्रतिक्रिया, या  परिणामही प्रकृति का न्याय है, और यही प्रकृति का न्याय , प्रत्येक राष्ट्र  का सिद्धान्त होना चाहिए।
यदि क्रिया का गुण हिंसा है तो उसका परिणाम भी हिंसा ही होगा और, इसी  क्रिया में, यदि सृजन के लक्षण हैं, तो परिणाम  भी  सृजनात्मक ही होगा। यही क्रिया की प्रतिक्रिया का सहज सिद्धान्त है। इसी प्रकृति जन्य प्रतिक्रिया में जब हम मानवीय आदर्श और नैतिक मूल्यों को मिलते हैं तो विकृति का जन्म होता है।

गांधी ने प्रकृति के इसी न्याय को नहीं माना। और मानवीय आदर्शवादी नैतिक सिद्धान्तों से न्याय की स्थापना का प्रयास किया। इस विकृति की परिणति अतंत्य भयानक हुई, आज़ादी से पहले ही २० लाख लोगों की हत्या   और आज़ादी के बाद लगभग ४० लाख लोगों की हत्या। इसके बाद भी हर बात पर गाँधी के सिद्धान्तों के आधार पर सामाजिक न्याय की अपेक्षा की जाती  है ,क्यों ?

ईसा से लगभग 2०० वर्ष पूर्व अशोक नामक राजा ने,  बौद्ध सिद्धान्तों के अंतरगत भारतवर्ष का सत्यानाश किया था वैदिक धर्म से पोषित, वैदिक धर्म से संस्कारित, और   वैदिक न्याय से प्रेरित सामाजिक वयवस्था को नपुंसक कायर आदर्शो की  कौसटी पर कस कर आत्मघाती ,आत्महिंसक और विलापी बना दिया गया।  बौद्ध सिद्धान्तों  ने भारत वर्ष को ऐसे अँधेरे आयाम या कुएं में धकेल दिया जिससे वो आज तक नहीं निकल पाया है।   चंद्रगुप्त, बिंदुसार फिर उसके बाद अशोक ने  वैदिक मांन्यताओं  का पालन करते हुए राष्ट्र का निर्माण एवम विस्तार किया। बौद्ध सिद्धान्तों  को   अपनाने के बाद भारतवर्ष का केवल   नाश हुआ है जो आज भी जारी है। बौद्ध सिद्धान्त कायर, अकर्मण्य, आडम्बरी , और विलापि, लोगों का आश्रय स्थल है। पहले बुद्धफिर अशोकफिर गाँधीफिर नेहरूफिर मोदीभारतवर्ष की बर्बादी का ये क्रम पता नहीं कहाँ थेमेगा ? 


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